Wednesday, July 22, 2009

सूर्यग्रहण था या ‘मीडियाग्रहण’


यह बात सच है कि सूर्यग्रहण एक अनोखा नजारा था और मीडिया को लोगों को इससे रुबरू करना चाहिए। मीडिया को इस प्राकृतिक घटना को लेकर लोगों के बीच पनपी ·भ्रांतियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए थी। परंतु अफसोस ऐसा कम ही हुआ।
एक या दो चैनलों को छोड़ दें तो तकरीबन ज्यादातार हिंदी समाचार चैनल टोटकों और आडंबरों की गाथा सुनाने में लगे थे। इसके जरिए कुछ बाबा लोगों की कुछ घंटों के लिए चांदी हो गई। टीआरपी की दौड़ में शीर्ष में शामिल एक चैनल तो ग्रहण को कुछ इस प्रकार पेश कर रहा था कि मानों अब दुनिया गर्क होने वाली यानी कि प्रलय आने वाली है।
एक और चैनल की बात करूं तो वहां सूर्यग्रहण से होने वाले कथित और संभावित त्रासदियों का बड़े ही सुंदर ढंग से बखान किया जा रहा था। महिला समाचार प्रस्तोता एक बाबा से यही सवाल पूछे जा रहीं थी कि अब क्या होगा? ऐसा लग रहा था वह बाबा जी विधि के विधाता हों और प्रलय के बारे में पूरी तरह आश्वस्त हों। सच तो यह है कि उन बाबा को यह नहीं पता रहा होगा कि स्टूडियो के बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है।

एक मिसाल देना बुहत जरूरी है। दिल्ली में 12 जुलाई को मेट्रो हादसे के बाद हमारी मीडिया दिल्ली मेट्रो रेल निगम लिमिटेड के पीछे हाथ धोकर पड़ गई की, और ऐसा उसे ऐसा करना ·ाी चाहिए था। परंतु सदी के सबसे लंबे सूर्यग्रहण के दिन यानी बुधवार सुबह दिल्ली के पंजाबी बाग में मेट्रो के निर्माणाधीन स्थल पर फिर एक हादसा हुआ जिसमें एक 22 साल के नौजवान कामगार की मौत हो गई। हालांकि मीडिया ने खबर को दिखाया लेकिन इस बार पर श्रीधरन की अगुवाई वाली संस्था को नहीं घेर सका क्योंकि इस दिन मीडिया पर सूर्यग्रहण का ग्रहण लगा हुआ था
कहने का मतलब यह है कि अगर मीडिया ही मिथ्या और आडंबर को बढ़ावा देने में लग जाएगा तो फिर क्या रह जाएगा। यह बाजार का तकाजा है या फिर एक ·भेणचल में शामिल होने की होड़?

खबरों में मिलावट और बाजार

अनवारुल हक
यह बात बेहद हैरान करती है कि खबरें बाजार के मानकों पर खरी उतरनी चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर बाजार के मानकों का आधार क्या है और इसे हम किस परिधि में देखते हैं। क्या बाजार के मानक यही कहते हैं कि ‘बंदर का शराब पीना’ या फिर ‘सांपों का नृत्य’ दिखाने से हमारे समाचार चैनलों के पास विज्ञापनों का अंबार लग सकता है?

यह बात सौ फीसदी सच है कि किसी चैनल या अखबार के संचालन के लिए बाजार की जरूरत पड़ती है। परंतु बाजार आपकी संपादकीय नीति को तय करे, ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए। यह सब जानते हैं कि बाज़ार की एक बड़ी कसौटी टीआरपी या फिर रीडरशिप है। परंतु क्या यह ज़रूरी है कि टीआरी में उछाल के लिए बंदर का रोना या फिर सापों का नाचना दिखाना जरूरी है। टीआरपी कोई सेंसेक्स नहीं है कि वित्त मंत्री साहब के एक बयान से इसमें उछाल आ जाए।

हां, ऐसा हो सकता है कि कुछ छड़िक टीआरपी किसी चैनल को हासिल हो सकती हैं। परंतु हमारे देश की उस जनता को इस स्तर का आंकना ठीक होगा, जिसने हाल के आम चुनाव में कई मायनों में परिवक्वता का परिचय दिया। संजीदगी और सच्चाई अगर है, तो कोई भी खबर या मीडिया संस्थान लोगों के बीच जगह बनाएगा। इसमें किसी को तनिक भी आशंका नहीं होनी चाहिए।

कुछ महीने पहले की बात है, जब मैंने बीबीसी पर एक अग्रणी समाचार चैनल के संपादक का संक्षिप्त साक्षात्कार सुना। वह जिस तरह से ‘सांप और बंदर समाचार’ की वकालत कर रहे थे, उसे सुन कर मेरे जैसा एक युवा पत्रकार हतप्रभ रह गया। सवाल यही है कि सूचनाओं के प्रसार के नाम पर और बाजार का रोना रोकर हम निर्लज्‍जता दिखाने को इस कदर उतावले हो गये हैं कि हमें समाज, देश और या खुद अपने भले की परवाह क्यों नहीं रही?

बात जहां तक खबरों में मिलावट की है तो यह भी सोचने के लिए अहम मुद्दा है। यह कहना चाहता हूं कि ख़बर दूध नहीं हैं कि इसमें मिलावट करने पर इसका रंग नहीं बदलेगा। खबर को खबर ही रहने दिया जाए। हां, बाजार की ज़रूरत है, इसे स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। परंतु यह धारणा बिल्कुल ग़लत होगी कि बाज़ार की वजह से ख़बरों में मिलावट की ज़रूरत भी है।


सौजन्य : http://mohallalive.com/