Monday, March 2, 2009

फिजा और चांद के आइने में इस्लाम


हाल में हुए फिजा और चांद मोहम्मद प्रकरण के बाद एक सवाल मन में कौंध रहा है कि इस्लाम को लेकर इस तरह का रवैया क्यों पेश किया जा रहा है। क्यों हरियाणा की सियासत के एक जाना पहचाना नाम अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्लाम का सहारा लेता है। इस पूरे प्रकरण के आइने में एक सवाल और खडा होता है कि किसी मजहब को महज अपने निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कहां तक तक इजाजत मिलनी चाहिए।
चांद मोहम्मद यानी चंद्रमोहन चंद महीने पहले तक एक बेहद रसूखदार पद पर आसीन थे। हरियाणा के उप मुख्यमंत्री के कुर्सी पर आसीन चंद्रमोहन अचानक चांद मोहम्मद बनकर सबके सामने आए और साथ में थीं उनकी नई नवेली पत्नी अनुराधा बाली उर्फ फिजा।
इस पूरे मामले में इस्लाम कहीं न कहीं केंद्र बिंदु में था। यही वजह रही कि मुस्लिम समाज से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया। एक इस्लामिक संस्था ने तो चांद मोहम्मद के खिलाफ फतवा तक जारी कर दिया।
वैसे दुनिया के किसी भी मजहब या विचारधारा की तरह इस्लाम में इस बात की पूरी आजादी है कि कोई भी इंसान इसमें अपनी आस्था जताने के लिए आजाद है। अगर कोई भी व्यक्ति इस्लाम को स्वीकार करना चाहता है तो उसे इस बात की पूरी छूट न सिर्फ इस्लामी कानून देते हैं बल्कि हमारे मुल्क का संविधान भी इसकी पूरी-पूरी आजादी देता है। यही वजह है कि चंाद मोहम्मद और फिजा ने बिना किसी रोक-टोक के अपने निजी मकसद के लिए इस्लाम का सहारा लिया।
इस बात को समझना जरुरी है कि आखिर चांद और फिजा ने इतनी आसानी से इस्लाम की कोई जानकारी न होने के बावजूद इसे क्यों अपनाया। दरअसल, फिजा और चांद को इस्लाम में आस्था नहीं थीं बल्कि अपने मकसद में आस्था थी। यह मकसद था शादी करने का और कानून के दायरे साफ तौर पर बाहर निकलने का।
अब तो यह देखना है कि फिजा या चांद कब तक इस्लाम को अपनाए रहते हैं। दोनों के अब तक के रवैये से साफ है कि उनका सिर्फ एक मकसद था जो पूरा हुआ लेकिन उनके सारे वादे और इरादे ने एक दूजे के लिए बल्कि इस्लाम और समाज के नजरिए से भी बेमानी साबित हुए है। उनकी साथ जीने मरने की कसमें चंद दिनों में ही टूट गईं और हर नेकी भरी बातें भी उनके जेहन से दूर हो गईं।
बात सिर्फ चांद और फिजा की नहीं है बल्कि ऐसे कई और लोग भी हैं जो अपने आप को महफूज करने की मकसद से इस्लाम का सहारा लेते हैं। फिल्म अभिनेता धर्मेंद और अभिनेत्री हेमा मालिनी की शादी के फसाने भी कुछ इसी तरह के थे। धर्मेंद्र ने हेमा से शादी करने का इरादा किया तो उनके सामने मजहबी बंधन और कानूनी अडचन आगे आ गई। इससे पीछे छुडाने के लिए इन दोनों ने इस्लाम का सहारा लिया।
सवाल यह है कि क्या इस्लाम को अपनाने वाले की नीयत को नहीं भांपा जाना चाहिए। इस बात पर मुस्लिम जगत के उलेमा इत्तेफाक नहीं रखते। फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफती मोहम्मद मुकर्रम अहमद कहते हैं कि यह लोकतंत्र है और यहां किसी को कोई मजहब अपनाने से नहीं रोका जा सकता। वे कहते हैं कि इस्लाम अगर कोई भी इंसान कुबूल करना चाहता है तो उसे राकने की इजाजत मजहब नहीं देता और किसी की नीयत मापने का पैमाना क्या हो सकता है।
उधर, महिलाओं के अधिकार की लडने वाली आॅल इंडिया महिला मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं कि फिजा और चांद मोहम्मद जैसे लोगों ने इस्लाम को बदनाम करने का काम किया है। उनका कहना है कि चंद्रमोहन यानी चंाद ने न सिर्फ इस्लाम को बदनाम किया बल्कि एक औरत के साथ धोखा कर औरतों की भी बदनाम किया। वह इस पूरे प्रकरण में उलेेमाओं और मुस्लिम रहनुमाओं की खामोशी को भी उचित नहीं मानती।
अब इस्लाम के जानकार और उलेमा कुछ भी कहें लेकिन चांद और फिजा ने जिस मजाकिया अंदाज में इस्लाम की आड में शब्दजाल बुने और देश की मीडिया खासकर टेलीविजन मीेडया ने इस पूरे प्रकरण को दिखाया उसमें कहीं न कहीं इस्लाम और उसके मानने वालों को ठेंस जरूर पहुंची।