Tuesday, August 25, 2009

जल रही लंका के रावण

पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह अब भाजपा के नहीं रहे। इस दक्षिणपंथी पार्टी ने उन्हें एक झटके में पराया कर दिया। पार्टी की ऐसी बेरुखी का अंदेशा तो भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दी चुके जसंवत को हरगिस नहीं रहा होगा। उन्होंने अपने जज्बातों को बयां करने का अदम्य साहस दिखाया और खिसयाई पार्टी ने उन्हें एक झटके में दूध से मक्खी की माफिक निकाल फेंका।

जसवंत के जेहन में यह चल रहा होगा कि जिस पार्टी के लिए उन्होंने 30 साल दिए उसने उन्हें 30 सेकेंड में ही बेगाना कर दिया। यह बात उन्होंने शिमला में कह भी दी। कभी वाजपेयी के हनुमान करार दिए गए जसवंत अब रावण हैं।

अब बेचारे जसवंत जी क्या करें। उनके राम यानी वाजपेयी जी का अब ‘रामराज’ नहीं रहा जहां वह हनुमान हुआ करते थे। वैसे ·भाजपा के हनुमान रहे जसवंत ऐसा कुछ किया भी नहीं किया जिसे कोई राजनीतिक दल सीधे तौर अनुशासनहीनता मान ले। न तो उन्होंने बंगारू लक्ष्मण की तरह रुपये के पैकेट लिए और नहीं उमा भारती की तरह सीधे अपने नेताओं को लताड़ लगाई। फिर आखिर एक किताब के बिना उन पर कार्यवाही क्यों कर दी गई?

वैसे जसवंत जिस लन्का के रावण बन बैठे, अब उसी में आग लग गयी है। आग लगाने वाले कहीं दूर देश से आए हनुमान नहीं बल्कि अपने ही लोग हैं। अरुण शौरी हों या सुधीन्द्र कुलकर्णी सबकी पूँछ में आग लगी हुई है। अब सम्भव है की जसवंत को रावण बनाकर निकलने वाले लोग ही न इस आग के शिकार हो जायें ।

जो पार्टी सबसे पहले आंतरिक लोकतंत्र की बात करती है वह उस बात को नहीं पचा पाई जिससे उसका सीधे कोई सरोकार नहीं था। महज विचारधारा पर आंच के नाम पर एक कद्दावर नेता की तिलांजलि दे दी गई।

खैर , जसवंत ने उसी सच को बढ़चढ़ कर कह दिया जिसे लोहिया और मौलाना आजाद जैसे नेता पहले ही कह चुके थे। उन्होंने कहीं यह नहीं कहा कि जिन्ना भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार नहीं थे। हां उन्होंने इसकी सामूहिक जिम्मेदारी की बात जरूर कही है।इतिहास पर बहस न करने की सीख देने वालों को यह सोचना होगा कि विज्ञान में कोई बात परमस्थायी नहीं होती तो फिर अतीत के दस्तावेजों पर बहस क्यों नहीं हो सकती।

सवाल है कि क्या इतिहास में त्रुटियां नहीं हो सकतीं? सबसे अहम बात यह है कि पुस्तक में लेखक का विचार निजी होता है तो उससे पार्टी इतनी आहत क्यों दिखती है?चलिए मान लेते हैं कि जसवंत ने भाजपा की विचारधारा को तार-तार कर दिया है। तो फिर आडवाणी के जिन्ना प्रेम में कौन सा अनुराग छुपा था जिन्हें जसवंत की माफिक कुर्बानी नहीं देनी पड़ी। इसी पार्टी को आडवाणी के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने में पसीने छूट गए थे।

ऐसे में भाजपा जैसी तथाकथित लोकतांत्रिक पार्टियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या मतलब है। पार्टी यही चाहती है कि उसके साथ जुड़ा हर व्यक्ति अपने विचारों और सोच को कहीं दफन कर दे। जो उसके ·भाए उसी बात को हर जगह व्यक्त किया जाए। जज्बातों के कद्र की कोई बात नहीं। अब ऐसी पार्टी का चिंतन बैठक करना लाजमी लगता है।

Sunday, August 16, 2009

टीम में ‘दीवार’ की वापसी


भारतीय क्रिकेट के महान खिलाड़ियों में शुमार हो चुके राहुल द्रविड़ की टीम में वापसी से साबित भी हो गया कि चयनकर्ताओं की नजर में वह आज भी एक ‘दीवार’ हैं।

चयनकर्ताओं ने मुंबई के युवा बल्लेबाज रोहित शर्मा को बाहर का रास्ता दिखाया और इसके बाद बेंगलुरू के द्रविड़ की टीम में वापसी हुई। उनकी यह वापसी दो वर्षों बाद हुई। उन्होंने 14 अक्टूबर, 2007 को अपना आखिरी मैच खेला था।

द्रविड़ का आखिरी 10 एकदिवसीय मैचों में प्रदर्शन बेहद साधारण ही रहा। उन्होंने अपने आखिरी 10 मैचों में महज 136 रन बनाए जिसमें सिर्फ एक अर्धशतक शामिल था। यही वजह रही कि उन्हें टीम में वापसी के लिए इतना लंबा इंतजार करना पड़ा।

द्रविड़ की वापसी के पीछे एक बड़ी वजह इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में उनका शानदार प्रदर्शन रहा है। टीम में उनकी वापसी को मध्यक्रम में एक मजबूती के तौर पर देखा जा रहा है। ‘श्रीमान भरोसेमंद’ और ‘मिस्टर कूल’ जैसे कई नामों से पुकारे जाने वाले द्रविड़ के लिए बल्लेबाजी क्रम में तीसरा स्थान सटीक माना जाता है।
आज से 13 साल पहले अंतरास्ट्रीय क्रिकेट में कदम रखने वाले द्रविड़ मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के बाद दूसरे ऐसे भारतीय क्रिकेट हैं जिनके नाम टेस्ट और एकदिवसीय दोनों में 10,000 से अधिक रन दर्ज हैं।

द्रविड़ ने अब तक 333 एकदिवसीय मैचों में 39.49 की बेहतरीन औसत से 10,585 रन बनाए हैं जिसमें 12 शतक और 81 अर्धशतक शामिल हैं। उन्होंने 134 टेस्ट मैचों में 52.53 की औसत से 10,823 रन बनाए है। इसमें उन्होंने 26 शतक भी जड़े हैं।

Wednesday, August 12, 2009

इस्लाम और चार शादी

पिछले दिनों विधि आयोग ने विधि मंत्रालय को एक रिपोर्ट सौंपी है जिसमें कहा गया है कि एक से अधिक विवाह करना इस्लाम के मूल्यों के विपरीत है। रिपोर्ट में यहां तक कहा गया है कि चार शादी करने को लेकर लोग एक तरह की गलतपफहमी के शिकार हैं। इस रिपोर्ट पर भारत के कुछ उलेमा और इस्लामी संघठन अपना विरोध जता रहे हैं।
सवाल यह है कि किसने ये आजादी दे दी कि कोई भी शख्स चार और औरतों पर अपनी हूकुमत चलाएगा। मैं इस वाक्य इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि चार शादी की वकालत करने वाले लोग सिर्फ औरत को सामान के सरीखे देखते हैं और उनका यही मानना होता है कि वे बादशाह हैं और जिसके साथ वे निकाह कर लेंगे वह उनकी गुुलाम हो जाएगी। इसलिए मैं इसे शादी नहीं बल्कि शादी के नाम पर किसी इंसान पर हूकुमत करने की एक प्रक्रिया मानतहंूं।
मैं इतना जरूर मानता हूं कि मुझे किसी उलेमा के माफिक इस्लाम की समझ और जानकारी नहीं है। हां मैं जिस इस्लाम को जानता और मानता हूं उसमें औरतों के लिए पूरा सम्मान और हक है। परंतु हमारे कुछ उलेमा औरतों को मर्दों की तुलना में कम आकंते हैं। ऐसा मेरा अनुभव भी रहा है।
अभी हाल ही एक हाफिज से मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने बातों-बातों में कहा कि औरत को हर हाल में अपने मर्द यानी पति के हुक्मों की फरमाबरदारी करनी चाहिए और उसका फर्ज अपने पति की सेवा करना है। मेरा उनसे उलट सवाल था कि क्या मर्द को अपनी बीवी की बात माननी चाहिए या फिर उसे बीबी की खिजमत नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसा करना मर्दों के मर्दानगी के खिलाफ है? मेरी इन बातों को सुनकर उन्होंने कहा कि आप औरतपरस्त हैं।
बहरहाल, इस्लाम का हवाला देकर जो लोग चार शादियों की वकालत करते हैं उन्हें जरा पैगम्बर की जिंदगी के हर पहूल पर गौर करना चाहिए। यह बात सबकों मालूम होगी कि जब पैगम्बर ने पहली शादी की तो वह महज 21 साल के थे। उन्होंने पहली शादी उस विधवा से की थी जिसकी उम्र तकरीबन 40 के आसपास थी। सवाल यह कि क्या हमारे ये कुछ उलेमा विधवा विवाह की वकालत करतें हैं या खुद ऐसी कोई पहल करने की हिम्मत करते हैं।
ऐसे कई सारे इस्लाम के पहूल हैं जिनके हवाले से इन तथाकथित मर्दों की तथाकथित मर्दानगी को बखूबी झकझोरा जा सकता है। उनको यह समझना होगा कि ये ही नहीं बल्कि औरतें भी इन पर हूकुमत कर सकती हैं। जहां तक चार शादी की बात है तो इस पहलू पर इन लोगों को अपने ज्ञान को थोड़ा बढ़ाने की जरूरत है।

Monday, August 10, 2009

स्वाइन फ्लू और बचाव


एच1एन1 वायरस जो स्वाइन फ्लू-ए के नाम से जाना जा रहा है आम तौर पर सूअरों पर इसका असर देखा गया है। इससे पीड़ित व्यक्ति को बुख़ार, आलस आना, कफ़ बनना, भूख न लगना, पीठ में दर्द, शरीर में दर्द और कमज़ोरी जैसी शिकायतें होती हैं।


इसके अलावा नाक बहना, गले में ख़राश तथा उल्टी−दस्त की शिकायत भी होती है।एच1एन1 वायरस के शिकार व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ़, सीने या पेट में दर्द और बेहोशी जैसी स्थिति होती है और मरीज़ खुद को असमंजस की स्थिति में पाता है। इसी तरह, पांच साल से कम बच्चों में दूसरे वायरल फ़ीवर की तरह ही देखना चाहिए कि कहीं बच्चे को अचानक तेज़ बुख़ार तो नहीं हुआ या गले में दर्द, सांस लेने में तकलीफ़, शरीर में नीलापन, अत्यधिक बेहोशी जैसी स्थिति और चिड़चिड़ापन तो नहीं है।


शरीर पर रैश दिखना भी स्वाइन फ्लू होने का लक्षण है।अब आपके लिए ये जानना भी ज़रूरी हो जाता है कि स्वाइन फ्लू से बचने के लिए किस तरह की एहतियात बरतने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो इससे बचाव के लिए आपको एक खास तरह के मास्क की ज़रूरत होगी। ये एक आम मास्क से अलग है। इसका नाम है एन 95। ये मास्क हवा में फैले कीटाणुओं को फिल्टर कर सकता है।ये म़ॉस्क अस्पताल में जांच के लिए जाते समय या अस्पताल में वेटिंग रूम में पहनना बेहद ज़रूरी है।


इसका अलावा अगर आपने किसी ऐसे व्यक्ति को छुआ है जिसे कफ़ और जुकाम हो तो अपने हाथ ज़रूर धोएं। खाने के पहले और खाने के बाद हाथ धोएं…जिन को सर्दी या ज़ुकाम भी हुआ तो वे कोशिश करें कि सावर्जनिक जगहों पर न जाएं।कोई स्वाइन फ्लू का मरीज़ है तो उसे अलग कमरे में रखें।कई अस्पतालों में मरीज़ों की मदद के लिए लिए हरसंभव कदम उठाए गए हैं.


अगर स्वाइन फ्लू के लक्षण मिलें तो आप दिल्ली के 13 अस्पतालों में जा सकते हैं। कुछ अस्पतालों के नाम इस प्रकार हैं : एयरपोर्ट हेल्थ आफिस, राम मनोहर लोहिया अस्पताल, लोकनायक जयप्रकाश, बाड़ा हिंदू राव अस्पताल, जीटीबी अस्पताल, डीडीयू अस्पताल, पीतमपुरा का बीएम अस्पताल औरर पूर्वी दिल्ली का लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल।


उधर, मुंबई में परेल स्थित कस्तूरबा अस्पताल, घाटकोपर के राजावाड़ी अस्पताल, बोरीवली के भगवती अस्पताल, मुलुंड स्थित एमटी अग्रवाल अस्पताल, बांद्रा के भाभा अस्पताल, गोरेगांव के सिद्धार्थ अस्पताल में जांच करवाने मरीज़ जा सकते हैं।


Source : NDTV India

इस्लाम और एक से अधिक शादी

अब्दुल वाहिद आज़ाद,
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम

इस्लाम में एक से अधिक शादी करने के मामले में विधि आयोग की ताज़ा रिपोर्ट की उलेमा ने कठोर आलोचना की है और इसे इस्लामी शिक्षा और शरीयत के विरुद्ध क़रार दिया है.
ग़ौरतलब है कि विधि आयोग ने विधि मंत्रालय को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दूसरी शादी करना ' इस्लाम के सच्चे क़ानून की आत्मा के ख़िलाफ़ है. साथ ही जो ये आम समझ है कि भारत में मुसलमानों का क़ानून उन्हें चार पत्नियाँ रखने की इजाज़त देता है, ग़लत है. '
रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कई मुस्लिम देशों जैसे तुर्की और ट्यूनीशिया, जहाँ बहुपत्नीत्व पर प्रतिबंध है ,वहीं मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक़, यमन, मोरोक्को, पाकिस्तान और बांगलादेश में दूसरी शादी प्रशासन या अदालत के अधीन है.
विधि आयोग की रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारत में इस्लामी शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र दारुल उलूम देवबंद के उपकुलपति मौलाना ख़ालिद मद्रासी का कहना है कि आयोग की रिपोर्ट मिथ्या पर आधारित है जो ग़लत और मज़हब में दख़ल के बराबर है.
उनका कहना है, " हम केवल भारतीय संविधान के अधीन हैं और संविधान अपने-अपने धर्म को मानने की आज़ादी देता है. एक से अधिक शादी करना मुसलमानों का धार्मिक अधिकार है और हम आयोग की रिपोर्ट की निंदा करते हैं. "
हालाँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की महिला सदस्या हसीना हाशीया विधि आयोग की राय को सही मानती हैं. उनका कहना है कि आयोग की बात इस्लामी शिक्षा के अनुरुप है.
वे कहती हैं, " इस्लाम में कुछ ऐसी विशेष स्थितियों में ही एक से अधिक शादी करने की इजाज़त दी गई है जैसे विधवा की संख्या काफ़ी बढ़ गई हो और इससे समाज में बुराई फैलने का डर हो. "
हाशीया कहती हैं कि भारत में दूसरी शादी करने के मामले प्रशासन के अधीन होने चाहिए. जैसे कई मुस्लिम देशों में हैं, लेकिन पूरी तरह से प्रतिबंध नहीं होना चाहिए, क्योंकि वो भी इस्लमी शिक्षा के विरुद्ध है.
मामले की गहराई पर बात करते हुए जामिया मिल्लिया इस्लामिया के इस्लामिक स्टडीज़ विभाग के प्रोफ़ेसर जुनैद हारिस कहते हैं कि इस्लाम में एक से अधिक शादी की इजाज़त ज़रूर दी गई है लेकिन न इसे आवश्यक बनाया गया है और न ही इसे बढ़ावा देने की बात कही गई है, बल्कि इसके लिए कुछ शर्तें भी रखी गई हैं.
उनका कहना है, " इस्लाम में एक से अधिक शादी की इजाज़त उसे दी गई है जो अपने बीवियों के बीच इंसाफ़ और उनके अधिकार को पूरा कर सकता है लेकिन इस्लाम इस बात की इजाज़त नहीं देता कि जो चाहे इस सुविधा का ग़लत इस्तेमाल करे. "
जुनैद हारिस स्वीकार करते हैं कि भारत में एक से अधिक शादी करने वाले अधिकतर लोग इस्लाम के सच्चे क़ानून की आत्मा का पालन नहीं करते हैं और कुछ तो अपने पहली पत्नी और उससे पैदा होने वाले बच्चों को भी छोड़ देते हैं जो इस्लाम के विरुद्ध है.
लेकिन कुछ उलेमा न सिर्फ़ विधि आयोग की रिपोर्ट से नाराज़ है बल्कि इसे शरीयत की ग़लत व्याख्या भी क़रार दे रहे हैं.
धार्मिक संगठन जमीअत उलेमा हिंद के सचिव मौलाना हमीद नोमानी ने विधि आयोग की रिपोर्ट पर सख़्त आपत्ति जताते हुए कहा कि ' आयोग को इस बात का अधिकार नहीं हैं कि वो शरीयत की ग़लत व्याख्या करे. '
मैंने यही सवाल समाजशास्त्री इम्तियाज़ अहमद से पूछा कि क्या ये ‘ शरीयत की ग़लत व्याख्या है ’ तो उनका कहना था, “ शरीयत की व्याख्याएं बदलती रहती हैं और एक से अधिक शादी करने की खुली छूट न क़ुरान में है न हदीस में है. ”
तो ऐसी क्या वजह है कि उलेमा बिरादरी आयोग की रिपोर्ट को मज़हब में दख़ल मान रहे हैं , तो इम्तियाज़ कहते हैं, " उलेमा को ऐसे किसी मामले में फेरबदल शरीयत में छेड़छाड़ लगता है क्योंकि वो इसे पहचान का मामला समझ लेते हैं, जबकि पहचान चार शादी करने से नहीं बल्कि अच्छे काम करने से होती है. "
मुसलमानों के एक से अधिक शादी का मामला विवादित रहा है लेकिन भारत सरकार के एक अध्ययन के अनुसार सच्चाई यह है कि इन सबके बावजूद भारतीय मुसलमान देश की दूसरी धार्मिक बिरादरियों से पीछे हैं।
source: बीबीसी Hindi

Tuesday, August 4, 2009

निरूपमा जी आप मेनन मत बनिएगा !


शिवशंकर मेनन अब अतीत की बात हो चुके हैं। उनकी जगह अब निरूपमा राव ले चुकी हैं। अब निरूपमा के सामने कई चुनौतियां हैं जो उनका कड़ा और माकूल इम्तहान लेंगी। शायद वह वैसी एक कोई गलती नहीं होनें देंगी जो मेनन साहब के कार्यकाल के आखिरी दिनों में हो गई।
मैं मेनन साहब की काबिलियत और उनकी निष्ठा पर कोई सवाल खड़े नहीं कर रहा। वह एक काबिल अधिकारी रहे हैं जिनके लिए हमारे दिल में आदर है। उन्होंने कई ऐसी कामयाबियां भी भारत के झोली में डालीं जिनकी हमारी विदेश नीति को भारी दरकार थी। मसलन कि ऐतिहासिक परमाणु करार के साथ उनका नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो गया।
परंतु मुझे डर इस बात का है कि कहीं इतिहास उनको एक खलनायक न मान बैठे। शर्म-ंअल-शेख में हम जो गलती कर बैठे उसकी उम्मीद मुझे इसलिए नहीं थी कि मेनन साहब जैसे अधिकारी की मौजूदगी में हमारी विदेश नीति तो जरा भी लचर नहीं हो सकती। परंतु अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ। बलूचिस्तान के रूप में ऐसा बिंदु साझा बयान में शामिल किया गया है जो पाकिस्तान का हमारे खिलाफ एक हथकंडा है। डर इस बात का है कि कहीं बलूचिस्तान नाम का एक कलंक हमारे पाक दामन में न लग जाए। खुदा न करे, पर अगर ऐसा हुआ तो अफसोस है कि मनमोहन के साथ मेनन साहब भी खलनायक के रूप में याद किए जाएंगे।
अब नई विदेश सचिव निरूपमा से उम्मीद यही करतें हैं कि वह मेनन साहब की गलती कभी नहीं दोहराएंगी। ऐसा उम्मीद रखना वाजिब भी हैं क्योंकि दक्षिण एशिया में निरूपमा को काम करने का लंबा अनुभव है। उनसे एक उम्मीद यह भी होगी कि उनके रहते ही शर्म-ंअल-शेख की गलती भूल को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाएगा।

Thursday, July 30, 2009

नापाक कोशिश


पडोसी मुल्क पाकिस्तान आज पर हम पर धौस ज़माने की कोशिश में है। उसको लगता है की वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश को कूटनीतिक तौर पर घेर लेगा. यही वजह है की आजकल वह आपने दमन में लगी कालख को साफ़ करने की बजाय भारत की ओर एक रणनीति के तहत ऊँगली उठा रहा है.

पाकिस्तान का नया शिगूफा यह है की उसके मुल्क में भारत आतंकवाद को मदद दे रहा है। उसके पास इतना हिम्मत नहीं की इस झूठ को वह तेज आवाज में कह सके लेकिन वह हर स्तर पर इस प्रयास में है की भारत पर कीचड़ उछाल दिया जाये. पाक मीडिया की मानें तो पाकिस्तान ने भारत को रा के बारे में सबूत भी दे दिए हैं. यह बात अलग है को वे आधारहीन कथित सबूत हमारी सरकार को नहीं मिले हैं. ज्ञात हो कि रा हमारे देश की प्रमुख खुफिया एजेन्सी है.

सवाल यह है की 'खिसियानी बिल्ली' के माफिक रहने वाले पाकिस्तान में इतना दुस्साहस कहाँ से आया कि हमारे मुल्क और हमरी खुफिया एजेन्सी पर उंगली उठा रहा है? याद रहे कि अभी हाल ही में हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ़ रजा गिलानी ने मिस्र के शहर शर्म-अल-शेख में मुलाकात की थी। दोनों की मुलाकात के बाद जो साझा बयान जारी किया गया उसमे बलूचिस्तान नाम का नया अध्याय जुड़ गया. यह पहली बार हुआ कि पाकिस्तानी के एक ऐसे सूबे का हमने जिक्र कर दिया जिसका हमसे कोई सरोकार नहीं है. जो लोग बलूचिस्तान में अपने हाथों में हथियार उठाये संघर्ष कर रहें हैं, भला हमने उनकी मदद कब की? इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए की शर्म-अल-शेख में कोई न कोई ऐसी गलती जरूर हो गई जिससे अपंग पडा पाकिस्तान दौड़ने की कोशिश कर रहा है. मुंबई हमले के बाद वह मुहं छुपाते फिर रहा था और आज सीना तानने के प्रयास में हैं.

खैर, अपनी त्रुटी को मानते हुए पाकिस्तान के इस नए पाशे को समझाने की जरूरत है। ज्ञात रहे की पिछले वर्ष मुंबई में १० पाकिस्तानी आतंकवादियों ने जो भीषण रक्तपात किया, उसके बाद से पाकिस्तान बैकफुट पर चला गया था. चौतरफा घिरे पकिस्तान ने यह पाशा मुंबई हमले के स्पष्ट दाग को धोने और भारत पर अनायास कीचड उछालने के मकसद से फेंका है.

अब सवाल यह है कि पाकिस्तान के पास कौन से ऐसे सबूत हैं जुनके बिना पर वह भारत की और उंगली उठा रहा है। दरअसल कुछ महीनों पहले बलूचिस्तान इलाके से कुछ कथित आतंकवादियों के पास से कथित तौर पर भारत में बने हथियार बरामद हुए थे. पाकिस्तान का यह दबी जुबान में कहना रहा है की बलूचिस्तान में भारत चिंगारी भड़का रहा है. अब वह सभवत: उन्ही बरामद हथियारों को अपना सबूत कह रहा है ताकि भारत को परेशान किया जा सके.

पकिस्तान की ओर से यहाँ तक कहा जा रहा है कि लाहौर में श्रीलंका क्रिकेट टीम पर हमले के पीछे भी भारत का हाथ था। हालाँकि इसका कोई सबूत उसके पास नहीं है. पाकिस्तानी मीडिया के हवाले से यह भी कहा गया है कि भारत कि खफिया एजेन्सी रा अफगानिस्तान में ट्रेनिंग कैंप चला रही है. जबकि पुरी दुनिया जानती है कि भारत अपने हर स्तर से अफगानिस्तान कि बेहतरी के लिए काम कर रहा है. उल्टे पकिस्तान की खूंखार खुफिया एजेन्सी आईएसआई ने काबुल में भारत के दूतावास पर हुए आतंकवादी हमले की साजिश रची थी. इसके पुख्ता सबूत मिले थे. अब वाही पाकिस्तान हम पर आरोप मढ़ रहा है.

पाकिस्तान कि इस नयी चाल के पीछे दूरगामी नतीजे को ध्यान में रखकर बने गयी रणनीति छुपी है. इसे समझने कि जरूरत है. पाकिस्तान को यह बताना बहुत जरूरी है कि वह अपनी नापाक हरकतों पर पर्दा डालने के लिए भारत जैसे जिम्मेदार देश पर उंगली उठाने कि हिमाकत नहीं कर सकता.

Wednesday, July 22, 2009

सूर्यग्रहण था या ‘मीडियाग्रहण’


यह बात सच है कि सूर्यग्रहण एक अनोखा नजारा था और मीडिया को लोगों को इससे रुबरू करना चाहिए। मीडिया को इस प्राकृतिक घटना को लेकर लोगों के बीच पनपी ·भ्रांतियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए थी। परंतु अफसोस ऐसा कम ही हुआ।
एक या दो चैनलों को छोड़ दें तो तकरीबन ज्यादातार हिंदी समाचार चैनल टोटकों और आडंबरों की गाथा सुनाने में लगे थे। इसके जरिए कुछ बाबा लोगों की कुछ घंटों के लिए चांदी हो गई। टीआरपी की दौड़ में शीर्ष में शामिल एक चैनल तो ग्रहण को कुछ इस प्रकार पेश कर रहा था कि मानों अब दुनिया गर्क होने वाली यानी कि प्रलय आने वाली है।
एक और चैनल की बात करूं तो वहां सूर्यग्रहण से होने वाले कथित और संभावित त्रासदियों का बड़े ही सुंदर ढंग से बखान किया जा रहा था। महिला समाचार प्रस्तोता एक बाबा से यही सवाल पूछे जा रहीं थी कि अब क्या होगा? ऐसा लग रहा था वह बाबा जी विधि के विधाता हों और प्रलय के बारे में पूरी तरह आश्वस्त हों। सच तो यह है कि उन बाबा को यह नहीं पता रहा होगा कि स्टूडियो के बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है।

एक मिसाल देना बुहत जरूरी है। दिल्ली में 12 जुलाई को मेट्रो हादसे के बाद हमारी मीडिया दिल्ली मेट्रो रेल निगम लिमिटेड के पीछे हाथ धोकर पड़ गई की, और ऐसा उसे ऐसा करना ·ाी चाहिए था। परंतु सदी के सबसे लंबे सूर्यग्रहण के दिन यानी बुधवार सुबह दिल्ली के पंजाबी बाग में मेट्रो के निर्माणाधीन स्थल पर फिर एक हादसा हुआ जिसमें एक 22 साल के नौजवान कामगार की मौत हो गई। हालांकि मीडिया ने खबर को दिखाया लेकिन इस बार पर श्रीधरन की अगुवाई वाली संस्था को नहीं घेर सका क्योंकि इस दिन मीडिया पर सूर्यग्रहण का ग्रहण लगा हुआ था
कहने का मतलब यह है कि अगर मीडिया ही मिथ्या और आडंबर को बढ़ावा देने में लग जाएगा तो फिर क्या रह जाएगा। यह बाजार का तकाजा है या फिर एक ·भेणचल में शामिल होने की होड़?

खबरों में मिलावट और बाजार

अनवारुल हक
यह बात बेहद हैरान करती है कि खबरें बाजार के मानकों पर खरी उतरनी चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर बाजार के मानकों का आधार क्या है और इसे हम किस परिधि में देखते हैं। क्या बाजार के मानक यही कहते हैं कि ‘बंदर का शराब पीना’ या फिर ‘सांपों का नृत्य’ दिखाने से हमारे समाचार चैनलों के पास विज्ञापनों का अंबार लग सकता है?

यह बात सौ फीसदी सच है कि किसी चैनल या अखबार के संचालन के लिए बाजार की जरूरत पड़ती है। परंतु बाजार आपकी संपादकीय नीति को तय करे, ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए। यह सब जानते हैं कि बाज़ार की एक बड़ी कसौटी टीआरपी या फिर रीडरशिप है। परंतु क्या यह ज़रूरी है कि टीआरी में उछाल के लिए बंदर का रोना या फिर सापों का नाचना दिखाना जरूरी है। टीआरपी कोई सेंसेक्स नहीं है कि वित्त मंत्री साहब के एक बयान से इसमें उछाल आ जाए।

हां, ऐसा हो सकता है कि कुछ छड़िक टीआरपी किसी चैनल को हासिल हो सकती हैं। परंतु हमारे देश की उस जनता को इस स्तर का आंकना ठीक होगा, जिसने हाल के आम चुनाव में कई मायनों में परिवक्वता का परिचय दिया। संजीदगी और सच्चाई अगर है, तो कोई भी खबर या मीडिया संस्थान लोगों के बीच जगह बनाएगा। इसमें किसी को तनिक भी आशंका नहीं होनी चाहिए।

कुछ महीने पहले की बात है, जब मैंने बीबीसी पर एक अग्रणी समाचार चैनल के संपादक का संक्षिप्त साक्षात्कार सुना। वह जिस तरह से ‘सांप और बंदर समाचार’ की वकालत कर रहे थे, उसे सुन कर मेरे जैसा एक युवा पत्रकार हतप्रभ रह गया। सवाल यही है कि सूचनाओं के प्रसार के नाम पर और बाजार का रोना रोकर हम निर्लज्‍जता दिखाने को इस कदर उतावले हो गये हैं कि हमें समाज, देश और या खुद अपने भले की परवाह क्यों नहीं रही?

बात जहां तक खबरों में मिलावट की है तो यह भी सोचने के लिए अहम मुद्दा है। यह कहना चाहता हूं कि ख़बर दूध नहीं हैं कि इसमें मिलावट करने पर इसका रंग नहीं बदलेगा। खबर को खबर ही रहने दिया जाए। हां, बाजार की ज़रूरत है, इसे स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। परंतु यह धारणा बिल्कुल ग़लत होगी कि बाज़ार की वजह से ख़बरों में मिलावट की ज़रूरत भी है।


सौजन्य : http://mohallalive.com/

Friday, July 17, 2009

शर्म-अल-शेख में मनमोहन ने शर्मिंदा किया!


मिस्र के शहर शर्म-अल-शेख में हमारे प्रधानमंत्री जी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी से जिस गर्मजोशी से हाथ मिलाया, उससे कई सवाल खड़े हो गए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मनमोहन सिंह जी और उनकी सरकार २६/११ की जघन्य घटना को भूल गए?

याद रहे कि चुनाव से पहले हमारी सरकार बार-बार यही कहती रही कि जब तक हमारा पड़ोसी देश आतंकवाद के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं कर देता तब तक हम उसके साथ कोई बातचीत नहीं करेंगे। परंतु पाकिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर उस हाफिज सईद को रिहा कर दिया गया जिसने मुंबई पर हमले की नापाक साजिश रची थी। ऐसे में हम उस पाकिस्तान को फिर से अपने गले में लपेटने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी फितरत ही डसना है।

सवाल यह है कि रूस में मनमोहन ने जिस दिलेरी का परिचय दिया था वह क्या महज एक दिखावा था या हमारे प्रधानमंत्री जी सियासी साहसी होने का अ·यास कर रहे थे। शर्म-अल-शेख में में मनमोहन सिंह ने संयुक्त बयान में उस चीज पर हामी भर दी जिसको लेकर हमने पाकिस्तान को बैकफुट पर धकेल दिया था।

मुंबई हमले के बाद बुरी तरह घिरा पाकिस्तान अब इतरा रहा है। वह शर्म-अल-शेख में हमारे प्रधानमंत्री और हमारी सरकार को पटकनी देने का जश्न मना रहा है। उसको ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि बिना कुछ किए ही हमारी सरकार ने उसको माफ जो कर दिया। परंतु मुंबई हमले के गवाह बने करोड़ो भारतीय उन पाकिस्तानों दरिंदों को कभी माफ नहीं करेंगे जिन्होंने इस नापाक हरकत को अंजाम दिया था। शायद हमारे प्रधानमंत्री जी को फिर से मंथन करना चाहिए।

Tuesday, June 23, 2009

सरकोजी साहब क्या बोल देते हैं ........


श्रीमान सरकोजी जी आप फ्रांस के राष्ट्रपति हैं इसलिए आपको यह कहने का हक जरूर है कि आप अपने मुल्क में किसका स्वागत करेंगे और किसका नहीं. लेकिन किसी की मजहबी सीमाओं में बे रोक-टोक दखल देने का अधिकार तो आपको कतई नहीं है.

आप को बुर्के पर अपनी नेक राय देने से पहले थोडा सोचना जरूर चाहिए था, जैसा की आपसे उम्मीद भी की जाती है. पर आप तो बोले तो बोलते ही रह गए. मैं आपकी इस नेक नियति पर सवाल खडा नहीं कर रहा कि आपकी बात में मुस्लिम औरतों की तकलीफों के प्रति छुपा एक भाव था जिसे आपने जाहिर किया. आपकी यह नीयत कितनी नेक थी कुछ लोग इस भी सवाल खड़े कर रहे हैं.
चलिए मन लेते हैं कि औरतों का बुरका पहनना उनके पिछडेपन और उनके एक तरह के घुटन में रहने की निशानी है. पर क्या आप यह कहना चाहते हैं कि सारी औरतें आपकी मिसेज यानी कार्ला ब्रूनी की पोशाक पहनने लगे तो वे आधुनिक हो जायेंगी. सरकोजी साहब आपका तर्क बहुत अटपटा लगता है.
मैं तो यही जनता हूँ कि पोशाक से किसी इन्सान के विकसित होने का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. जनाब मेरे मुल्क के प्रधानमंत्री पगडी पहनते हैं. आपको यह भी बता दूं कि मेरे देश के गृह मंत्री पी. चिदंबरम लूंगी पहनते हैं. शायद आप भी इन दोनों को जानते होंगे. कहीं आप इन दोनों बेहद पढ़े-लिखे लोगों को जाहिल मत बोल दीजियेगा.
हम तो आपको यही सलाह देंगे कि आप जरा अपने सेकुलरिज्म और इंसानी आजादी के पहलुओं पर चिंतन करिए.

Monday, June 15, 2009

धोनी को इस कदर ना कोसो....


यह बात सौ फीसदी सही है कि इस बार के टी-20 विश्व कप मंे टीम इंडिया के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की सारी जिद बेकार चली गई। उनकी हर रणनीति विफल रही। हर वार चूक गया। उन पर से भरोसा भी कुछ हद तक उठ गया। लेकिन हमें खेल के बुनियादी वसूलों और धोनी की उपलब्धियों को एक सुर में खारिज नहीं करना चाहिए।
अपने देश में हिंदी सिनेमा और क्रिकेट का मैदान ऐसी दो जगहें जहां कामयाबियों और नाकामियों का बड़े पैमाने पर मोल-तोल होता है। यहां अगर कोई चमक गया तो मानो वह देवता है। पर अगर इसी देवता ने कोई गुस्ताखी कर दी तो चंद मिनट में ही वह हमारी मीडिया और इसके जरिए लोगों की नजरों में रावण व कंस की जमात में खड़ा हो जाता है। ऐसा लगता है कि हर कोई उसका वध करने पर आमादा हो। शायद यही वजह है कि लोग अपने इस दिल से उपजे आक्रोश को पुतलों को जलाकर और पोस्टरों में अपनी भड़ास निकालकर शांत करते हैं।
ऐसा ही कुछ यूथ आइकाॅन कहे जाने वाले धोनी के साथ भी हो रहा है। धुरंधर धोनी हर जगह निंदा के पात्र बने हुए हैं। वह खुद अपनी पुरानी कामयाबियों को गिन रहे होंगे और इस एक नाकामी से उनकी तुलना कर रहे होंगे। ऐसा करके वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, वह वाकई उनके लिए तकलीफदेह होगा। और यह किसी भी इंसान के लिए हो सकता है।
यह वक्त आलोचना करने का जरूर है लेकिन बार-बार कोसने का नहीं है क्योंकि अभी बहुत क्रिकेट होनी है व धोनी को कई चुनौतियां झोलनी हैं। महज एक नाकामी के आधार पर हम धोनी की प्रतिभा और क्षमता को नकार नहीं सकते। हमें नहीं भूलना चाहिए इसी धोनी ने कामयाबियों की कई इबारतें गढ़ी हैं और संभव है कि अभी कई मंजिलें उनका इंतजार कर रही हों।

Friday, May 29, 2009

उम्मीदें ही उम्मीदें


महेंद्र सिंह धोनी की अगुवाई में टीम इंडिया दूसरी बार टी-२० विश्व कप का खिताब जीतने इंग्लॅण्ड गयी है. इस बार इस टीम से से ऐसे उम्मीदें भी हैं. हालाँकि २००७ में धोनी और उनकी टीम से इतना उम्मीदें नहीं थी और नतीजा विश्व विजेता बनना रहा. परन्तु इस बार उम्मीदों का पहाड़ सा बन गया है जिसे पार करके फतह पाना धोनी और उनके धुरंधरों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
यह अक्सर देखा गया है की हमारी टीम उम्मीदों के बोझ टेल घुटने टेक देती है. लेकिन धोनी की इस टीम के बारे में यह राय रखना पूरी तरह उचित नहीं रहेगा. इस टीम में हर वह खूबी मौजूद हैं जो एक विश्व विजेता में होनी चाहिए. परन्तु अनिश्चित्तावों के इस खेल में पहले से कुछ भी कह पाना आसान नहीं है. अब इस टीम से उम्मीदें तो बहुत हैं लेकिन इन पर खरा उतरना इन खिलाडियों का काम है. हम तो सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं.

Wednesday, April 29, 2009

बेरोजगारी और सुरक्षा होंगे मुसलमानों के मुद्देः शेरवानी


पूर्व केंद्रीय मंत्री और बदायूं लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी सलीम इकबाल शेरवानी से कुबूल अहमद की हुई बातचीत के अंश-
इस बार के आम चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का रुझान किस ओर है।

मेरे हिसाब से देश में एकमात्र धर्मनिरपेक्ष राष्टीय पार्टी कांग्रेस है। इसके लिए मुस्लिम मतदाता मतदान करेंगे। कांग्रेस के ही पक्ष में मतदान करने के लिए मैं मुसलमानों को एकजुट करुंगा।
किन मुददों पर मुस्लिम मतदाताओं मतदान करेगा।
मुसलमानों के सामने सबसे बड़े मसले बेरोजगारी ओर सुरक्षा है। इस बार मुस्लिम मतदाता इन्हीं दो मुददों पर केंद्रित रहेंगे और अपना मत भी डालेंगे। मैं कांग्रेस में होने के नाते मैं अपनी पार्टी में इन दोनों मुददों को रखूंगा और इसके लिए काम करुंगा।
इस बार के चुनाव में कई मुस्लिम जमातें मैदान में हैं। इस पर आपकी राय क्या है।
इन जमातों के सामने आने की कुछ वजहें हैं। जब इन लोगों की बातें नहीं सुनी गई तो ये लोग ख्ुाद लामबंद हुए और अपनी जमता के सामने आए। कहने का मतलब कि ये पार्टियां बेवजह नहीं है। मिसाल के तौर पर बटला हाउस मुठभेड़ के बाद जब आजमगढ़ के लोगो की बात नहीं सुनी गई तो उलमे काउंसिल का गठन हो गया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहां सभी के मसलों को सुनना और सुलझाया जाना चाहिए।
इन मुस्लिम जमातों का सियासी असर क्या होगा।
अगर मुस्लिम जमातें आती हैं तो निश्चित तौर पर मुस्लिम मतों को धु्रवीकरण होगा। इसका फायदा दूसरे दल उठाएंगे। इससे मुसलमानों को फायदा नहीं हाने वाला।
आपने सपा क्यों छोड़ी।
मै यह बात साफ कर दूं कि सपा को मैंने नही बल्कि सपा ने मुझे छोडा है। जब मुझे यह न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों से खबर मिली कि मेरा टिकट कट गया तो मैं अपने लोकसभा क्षेत्र के लोगों से राय लेने के बाद कांग्रेस में शामिल हुआ। कांग्रेस मेरा पुराना घर है।
कल्याण और मुलायम की दोस्ती का क्या असर होगा।
देश में मुसलमानों के अंदर बाबरी मस्जिद का दर्द हमेशा रहेगा और कल्याण को देखने के बाद वह दर्द ताजा हो उठेगा। कल्याण सिंह के सपा के साथ आ जाने से मुलायम को मुस्लिम मतों के नजरिए से भारी नुकसान होने वाला है।

Saturday, April 25, 2009

आजमगढ़ का कामरान


मैं जब आजमगढ़ में था तब वहां नाइट मैच देखने का बहुत शौक था। वहां मेरे कस्बे में नाइट मैच तीन दिनों तक चलता था। हम लोग तीनों दिन यह मैच रात भर जागकर देखते थे। उसी दौरान वहां नवादा गांव की टीम मैच खेलने आया करते थी। उसी टीम में एक गंेदबाज था कामरान खान।
आज वही कामरान महान गेंदबाज शेन वार्न की आंखों के तारे हो गए हैं। कामरान की कामयाबी पर मैं सिर्फ इसलिए नहीं खुश हूं कि वह आजमगढ़ के हैं बल्कि मेरी खुशी इसलिए भी ज्यादा है कि वह मुफलिसी से निकलकर इस मुकाम तक पहुंचे हैं। उन्हें देखकर तब और भी अच्छा लगता है जब मैं यह सोचता हूं कि मेरे कस्बे के निकट एक खेत में बनी पिच से निकलकर एक लड़का डरबन के मैदान तक जा पहुंचा है।
वैसे आईपीएल की राजस्थान राॅयल्स टीम में कामरान का खेलना किसी सपने के सच होने जैसा जरूर है। मैं आजमगढ़ की सरजमीं पर पैदा हुआ हंू इसलिए पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि वहां हजारों ऐसे लड़के हैं जिनकी आंखों में कामरान जैसे ही सपने पल रहे हैं। अब कामरान ने उनके सपने देखने की ताकत को और भी मजबूत बना दिया है।
मुझे हमेशा इस बात की तकलीफ रहती कि यहां बहुत सारे लोगों के मन में आजमगढ़ की छवि सिर्फ आतंकवाद और अपराध के ईर्द-गिर्द है। कामरान जैसे नौजवानों ने कई मायनों में उस छवि को झुठलाया है और लोगों को मेरे जिले के बारे में फिर से सोचने पर मजबूर किया है।

Wednesday, April 22, 2009

चावेज की नयी चाहत


वेनेजुएला के राष्ट्रपति हुगो चावेज अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा के दीवाने हो हैं. ऐसा लगता ही नहीं की यह वाही चावेज हैं जो कुछ महीनो पहले तक अमेरिका और उसकी नीतिओं को जमकर कोसते थे. हाँ यह बात भी सही है की चावेज साहब उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर ज्यादा बरसते थे.
सवाल यह है की ओबामा के आने से अमेरिका की उन नीतियों में कितना बदलाव आया है जिन पर चवेज आग बबूला रहते थे. अगर गौर करें तो अमेरिका और बुश की विदेश नीति को लेकर ही चावेज ज्यादा आक्रोशित थे. इसके साथ ही एक बात और अहम् है की ओबामा के समय में अमेरिका की विदेश निति में कोई चमत्कारिक बदलाव नहीं है. फिर चावेज को ओबामा इतना क्योँ सुहाने लगे हैं?
क्या चावेज की बुश से कोई व्यक्तिगत खुन्नस थी या फिर ओबामा के व्यक्तित्व पर वह कुछ इस कदर निहाल हो गए हैं की उनको अमेरिका दिल के करीब लगने लगा है. अब कोई हैरत न होगी की चावेज का व्हाइट हाउस तक आना जाना धड़ल्ले से शुरू हो जाये. हम तो यही कहेंगे की सलामत रहे यह नया दोस्ताना..

Friday, April 17, 2009

फिर कब आएंगे



चिट्टी पत्री ख़तो किताबत के मौसम


फिर कब आएंगे?


रब्बा जाने,


सही इबादत के कब मौसम


फिर कब आएंगे?


चेहरे झुलस गये क़ौमों के लू लपटों में


गंध चिरायंध की आती छपती रपटों में


युद्धक्षेत्र से क्या कम है यह मुल्क हमारा


इससे बदतर


किसी कयामत के मौसम


फिर कब आएंगे?


हवालात सी रातें दिन कारागारों से


रक्षक घिरे हुए चोरों से बटमारों से


बंद पड़ी इजलास


ज़मानत के मौसम


फिर कब आएंगे?


ब्याह सगाई बिछोह मिलन के अवसर चूके


फसलें चरे जा रहे पशु हम मात्र बिजूके


लगा अंगूठा कटवा बैठे नाम खेत से


जीने से भी बड़ी


शहादत के मौसम


फिर कब आएंगे?


-- नईम


सौजन्य :http://www.anubhuti-hindi.org/

Thursday, April 9, 2009

जरनैल के जूते का असर


एक निजी अखबार के पत्रकार जरनैल सिंह ने चिदंबरम साहब पर जूता क्या फेंक दिया देश की सियासत में हड़कंप मच गई। कांग्रेस पार्टी पर इस जूते का असर कुछ ज्यादा ही देखा गया। पार्टी जरनैल के जूते का संकेत समझ गई कि यह जूता चिदंबरम साहब पर नहीं बल्कि जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार पर फेंका गया था।
टाइटलर और कुमार का टिकट काटकर पार्टी ने जूते के असर को पुख्ता कर दिया है। लोग कुछ भी कहें एक पत्रकार के जूते ने अपना दम दिखा ही दिया।

Wednesday, March 18, 2009

वरुण गांधी का 'विषैलापन'


वरूण गांधी से जुड़े सीडी प्रकरण पर गौर करें तो इस पर किसी को भी ताज्जुब नहीं करना चहिए। हां थोड़ा आश्चर्य इस बात है कि गांधी-नेहरु परिवार से जुड़ा व्यक्ति इस जुबान में बोल रहा है। वैसे भी वरुण आज जिस सियासी पार्टी में हैं उसका इस तरह की भाषा से पुराना नाता रहा है।
बात अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की नहीं हो रही है। यहां बात उनकी पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी की हो रही है। कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा के महारथी रहे कल्याण सिंह की भाषा भी वरुण वाली भाषा थी। नरेंद्र मोदी की भाषा का गवाह भी पूरा देश है।
वैसे यह सवाल बड़ा है कि वरुण को अचानक इतने कट्टर हिंदुत्व की याद कैसे आ गई। इसके पीछे वजहें दो हैं। पहली यह कि वरुण को अपना सियासी ग्राफ बढ़ाना है और दूसरी बात यह कि इसी तरह के हथखंडो से उनकी पार्टी भी फायदा उठाना चाहती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या वरुण को अपने मकसद में कामयाबी मिल पाएगी।
कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी यह तल्ख भाषा वाली मेहनत जाया चली जाए। संभावना यह भी है कि उनकी इस जुबान के असल सूत्रधार कहीं उन्हें बीच भंवर न छोड़ दें। ये बातें तो खुद वरुण को ही सोंचनी पड़ेंगी।

Saturday, March 14, 2009

अनुराग कश्यप का जवाब नहीं

निर्देशक अनुराग कश्यप न सिर्फ हटकर फिल्में बनाते हैं बल्कि अपनी फिल्मों में समाज की कड़वी को भी समेटते हैं। इस बात को उन्होंने अपनी नई फिल्म गुलाल से एक बार फिर साबित कर दिया है।

उनकी नई फिल्म गुलाल छात्र राजनीति की कड़वी सच्चाइयों से बखूबी वाकिफ कराती है। इस फिल्म में अनुराग ने अपने बेहतरीन निर्देशन की झलक एक बार फिर पेश की है। राजस्थान के राजपूत समाज और छात्र राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दिलीप सिंह नाम के एक ऐसे युवक की कहानी है जो सियासत और समाज की कड़वी सच्चाइयों से अनजान होता। वह किस तरह से एक भोलीभाली जिंदगी से सियासत के दांवपेंच में फंसता है फिर उससे कैसे निकलता है, इसी को फिल्म में बड़े ही वास्तविक ढंग से दिखाने की कोशिश हुई है।
अनुराग की इस फिल्म के हर किरदार में वास्तविकता की एक झलक मिलती है। सभी ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय करने की कोशिश की है। परंतु अभिनय के लिहाज से यह फिल्म संजीदा कलाकार के के मेनन के कंधों पर टिकी है। फिल्म में बाना नाम का जो किरदार उन्होंने निभाया वह अपने आप में लाजवाब है।

Sunday, March 8, 2009

बापू के देश में माल्या

शराब के कारोबारी विजय माल्या का भला गांधी और गांधीवाद से क्या सरोकार है। यह बात इसलिए उठती है क्योंकि बहुत लोगों को महात्मा गांधी से जुडी धरोहरों को बोली लगाकर खरीदना अच्छा नहीं लगा। इनका तर्क है कि जिस गांधी ने आजीवन शराब के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की आज उन्हीं बापू की धरोहर को शराब के एक कारोबारी ने खरीदा।
आज अगर हमने बापू के कुछ सामानों को अपने देश की अस्मिता औ प्रतिष्ठा से जोड दिया था तो माल्या ने उन सामानों को खरीदकर निश्चित तौर पर उस अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा की है।
जहां तक बात गांधी और माल्या के सरोकार की है तो वह एक लंबी बहस का मसला है। बात सच है कि माल्या का गांधीवाद से कोई लेना देना नहीं है लेकिन वे लोग जो गांधी और उनके वसूलों के असल अनुयायी बन रहे हैं क्या वे लोग खुद से यही सवाल करके देख सकते है। सवाल वहीं कि वे किस हद तक वे गांधीवाद से जुडे हैं।
कहने का मतलब साफ है कि गांधी की सिर्फ मौकों पर करने वाले और अपने चंद फायदों के लिए बापू के नाम का बेजा इस्तेमाल करने वालों को कोई हक नहीं है कि माल्या पर बरसें क्योंकि माल्या भी बापू के इसी देश के बाशिंदे हैं।

Tuesday, March 3, 2009

'ना पाक' ना


श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर लाहौर हुए हमले ने पाकिस्तान के चेहरे से मासूमियत का नकाब फिर से उतार दिया है. पाकिस्तानी पंजाब सरकार को तो मुंबई पर हमला करने वाले दरिंदो की याद आ गयी. शायद पहले नहीं आयी थी क्यूंकि पहले निशाना लाहौर नहीं था.
कहने का मतलब यह है की पाकिस्तान कब तक पूरी दुनिया की आँखों में धुल झोंकता रहेगा. यह बात सही है किसी श्रीलंका के किसी खिलाडी की जान नहीं गयी. लेकिन जिस तरह से एक मेहमान टीम को बीच सड़क पर रोक कर गोलियां बरसाईं गयीं, वह वाकई खौफनाक था.
अब भी वक्त है की पाकिस्तान की सरकार कुछ ठोस करे नहीं तो इतनी देर हो जायेगी की पाकिस्तान के लिए अपना अस्तित्व बचाना भी मुस्किल हो जायेगा. उसे यह भी सोचना चाहिए अमेरका और चीन कब तक उसके आका बने रहेंगे.


तस्वीर: सौजन्य- बीबीसी

Monday, March 2, 2009

फिजा और चांद के आइने में इस्लाम


हाल में हुए फिजा और चांद मोहम्मद प्रकरण के बाद एक सवाल मन में कौंध रहा है कि इस्लाम को लेकर इस तरह का रवैया क्यों पेश किया जा रहा है। क्यों हरियाणा की सियासत के एक जाना पहचाना नाम अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्लाम का सहारा लेता है। इस पूरे प्रकरण के आइने में एक सवाल और खडा होता है कि किसी मजहब को महज अपने निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कहां तक तक इजाजत मिलनी चाहिए।
चांद मोहम्मद यानी चंद्रमोहन चंद महीने पहले तक एक बेहद रसूखदार पद पर आसीन थे। हरियाणा के उप मुख्यमंत्री के कुर्सी पर आसीन चंद्रमोहन अचानक चांद मोहम्मद बनकर सबके सामने आए और साथ में थीं उनकी नई नवेली पत्नी अनुराधा बाली उर्फ फिजा।
इस पूरे मामले में इस्लाम कहीं न कहीं केंद्र बिंदु में था। यही वजह रही कि मुस्लिम समाज से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया। एक इस्लामिक संस्था ने तो चांद मोहम्मद के खिलाफ फतवा तक जारी कर दिया।
वैसे दुनिया के किसी भी मजहब या विचारधारा की तरह इस्लाम में इस बात की पूरी आजादी है कि कोई भी इंसान इसमें अपनी आस्था जताने के लिए आजाद है। अगर कोई भी व्यक्ति इस्लाम को स्वीकार करना चाहता है तो उसे इस बात की पूरी छूट न सिर्फ इस्लामी कानून देते हैं बल्कि हमारे मुल्क का संविधान भी इसकी पूरी-पूरी आजादी देता है। यही वजह है कि चंाद मोहम्मद और फिजा ने बिना किसी रोक-टोक के अपने निजी मकसद के लिए इस्लाम का सहारा लिया।
इस बात को समझना जरुरी है कि आखिर चांद और फिजा ने इतनी आसानी से इस्लाम की कोई जानकारी न होने के बावजूद इसे क्यों अपनाया। दरअसल, फिजा और चांद को इस्लाम में आस्था नहीं थीं बल्कि अपने मकसद में आस्था थी। यह मकसद था शादी करने का और कानून के दायरे साफ तौर पर बाहर निकलने का।
अब तो यह देखना है कि फिजा या चांद कब तक इस्लाम को अपनाए रहते हैं। दोनों के अब तक के रवैये से साफ है कि उनका सिर्फ एक मकसद था जो पूरा हुआ लेकिन उनके सारे वादे और इरादे ने एक दूजे के लिए बल्कि इस्लाम और समाज के नजरिए से भी बेमानी साबित हुए है। उनकी साथ जीने मरने की कसमें चंद दिनों में ही टूट गईं और हर नेकी भरी बातें भी उनके जेहन से दूर हो गईं।
बात सिर्फ चांद और फिजा की नहीं है बल्कि ऐसे कई और लोग भी हैं जो अपने आप को महफूज करने की मकसद से इस्लाम का सहारा लेते हैं। फिल्म अभिनेता धर्मेंद और अभिनेत्री हेमा मालिनी की शादी के फसाने भी कुछ इसी तरह के थे। धर्मेंद्र ने हेमा से शादी करने का इरादा किया तो उनके सामने मजहबी बंधन और कानूनी अडचन आगे आ गई। इससे पीछे छुडाने के लिए इन दोनों ने इस्लाम का सहारा लिया।
सवाल यह है कि क्या इस्लाम को अपनाने वाले की नीयत को नहीं भांपा जाना चाहिए। इस बात पर मुस्लिम जगत के उलेमा इत्तेफाक नहीं रखते। फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफती मोहम्मद मुकर्रम अहमद कहते हैं कि यह लोकतंत्र है और यहां किसी को कोई मजहब अपनाने से नहीं रोका जा सकता। वे कहते हैं कि इस्लाम अगर कोई भी इंसान कुबूल करना चाहता है तो उसे राकने की इजाजत मजहब नहीं देता और किसी की नीयत मापने का पैमाना क्या हो सकता है।
उधर, महिलाओं के अधिकार की लडने वाली आॅल इंडिया महिला मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं कि फिजा और चांद मोहम्मद जैसे लोगों ने इस्लाम को बदनाम करने का काम किया है। उनका कहना है कि चंद्रमोहन यानी चंाद ने न सिर्फ इस्लाम को बदनाम किया बल्कि एक औरत के साथ धोखा कर औरतों की भी बदनाम किया। वह इस पूरे प्रकरण में उलेेमाओं और मुस्लिम रहनुमाओं की खामोशी को भी उचित नहीं मानती।
अब इस्लाम के जानकार और उलेमा कुछ भी कहें लेकिन चांद और फिजा ने जिस मजाकिया अंदाज में इस्लाम की आड में शब्दजाल बुने और देश की मीडिया खासकर टेलीविजन मीेडया ने इस पूरे प्रकरण को दिखाया उसमें कहीं न कहीं इस्लाम और उसके मानने वालों को ठेंस जरूर पहुंची।

Sunday, March 1, 2009

जामिया नगर में भी 'जय हो'


गुलजार साहब और रहमान की 'जय हो' का लोहा सात समुंदर पार वे लोग भी मान गए जो 'जय हो'या यू कहें कि हमारी हिंदी से वाकिफ नहीं हैं। मैं तो कहूंगा कि 'जय हो' देश में मजहबी बाधाओं को भी खंडित कर दिया है। इस बात का मैं गवाह अचानक ही बन गया।


दअसल मैं राजधानी के उस इलाके में रहता हूं जहां शायद ही कोई गैर मुस्लिम बाशिंदा बसर करता हो। बात जामिया नगर की कर रहा हूं। चंद रोज पहले की बात है जब मैं जामिया नगर इलाके के बटला हाउस बाजार में चहलकदमी कर रहा था। उसी दौरान मेरे कानों में 'जय हो' की गूंज सुनाई दी। जो आवाज मुझे सुनाई दे रही थी वह किसी रेडियो, टीवी या म्यूजिक सिस्टम से नहीं आ रही थी बल्कि दो मासूम बच्चे इस गीत को बेहद शिद्दत से गा रहे थे। उसी दिन इसी इलाके के जाकिर नगर में मुझे 'जय हो' गुनगुनाते हुए कुछ बच्चे और दिखे।


इस बात का बखान मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैं जिस तबके यानी मजहब से ताल्लुक रखता हूं वहां चंद परिवार ही ऐसे होंगे जहां 'जय हो'का गान बेहद ही 'उदारवादी माहौल' में मुमकिन है। पर गुलजार साहब और संगीत के जादूगर रहमान ने इसे हर जगह मुमकिन कर दिखाया है। यह कहना ठीक होगा कि संगीत को भौगोलिक सीमाए ही नहीं वरन मजहबी सीमाएं भी नहीं रोक सकती हैं।

Saturday, February 28, 2009

प्रभाकरन का पटाक्षेप?


अनवारूल हक


भारत के पडोस से दहशत का घना कोहरा अब लगभग छंट चुका है। यह कोहरा लिबरेशन टाइगर्स आफ तमिल ईलम यानी लिटटे का था। अभी यह पूरे विष्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि आतंकवाद का पर्याय लिटृटे पूरी तरह तबाह हो चुका है लेकिन इतना तय है कि वेलुपिल्लई प्रभाकरन के इस ख्ंाूखार संगठन को कोई चमत्कारिक बैषाखी ही सहारा दे सकती है।


अगर लिटटे की दुर्दषा हुई है तो उसका पूरा श्रेय श्रीलंका की सरकार और वहां की सेना को जाता है। सेना ने तमिल विद्रोहियों के हर किले को भेदते हए उन्हें खात्मे के आखिरी छोर पर पहंुचा दिया है। बस अब श्रीलंकाई सरकार ही नहीं वरन पूरी दुनिया को उसी पल का इंतजार है जब खंूखार प्रभाकरन सेना की गिरफत में होगा।


श्रीलंकाई सेना को जो कामयाबी अब मिली है उसका इंतजार 27 वर्षों से था। आज से तकरीबन ढाई दषक पहले ही प्रभाकरन ने लिटटे जैसे आतकवादी संगठन की बुनियाद रखी थी। इसके बाद से प्रभाकरन और उसके संगठन का जो आतंकी तांडव शुरू हुआ उसनी बर्बादी की ढेरों इबारतें लिख दीं। परंतु षायद अब प्रभाकरन और उसके संगठन के दिन पूरे हो चुके हैं।


श्रीलंकाई सेना ने लिटृटे की राजनीतिक राजधानी किलिनोच्चि पर कब्जा जमा लिया था और अब तमिल विद्रोहियों के आखिरी गढ मुल्लैतिवु को अपने कब्जे में ले चुकी है। जानकारों की माने तो अब लिटृे का अंत हो चुका है। लिटृटे का सरगना प्रभाकरन अपनी जान बचाने के लिए रास्ते तलाष रहा है।


दुनिया में चंद लोग हो सकते हैं जो प्रभारकन के नापाक और अमानवीय मंसूबे को सही ठहराते हैं। लेकिन बहुतायत ऐसे हैं जो प्रभाकरन की दरिंदगी को षायद ही भूल पाएं। खासकर हम भारतीय जिनका एक बेहतरीन नेता इसी प्रभाकरन ने छीन लिया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ही हत्या की वजह से करोडंो भारतीयों के दिल में जो टीस सालों पहले लगी थी वह आज भी बरकरार है।


प्रभाकरन ने वर्ष 1991 में मानव बम का उपयोग करते हुए राजीव की हत्या करवा दी थी। चेन्नई के उच्च न्यायालय पहले ही प्रभारकन को मौत की सजा सुना चुका है। राजीव गांधी की हत्या पर वर्ष 2006 में लिटृटे ने माफी मांगी थीं। लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रभाकरन और उसके संगठन का जुर्म माफी के लायक हैं। इसका उत्तर सर्वथा ना में होगा।


प्रभाकरन और उसके संगठन की कुछ नापाक करतूतों पर गौर करना जंरूरी है। राजीव गांधी की हत्या से अलग भी प्रभारकन ने कई जुर्म किए हैं जिनसे किसी भी आदमी रूह कांप जाए। श्रीलका के पूर्व राष्टपति रणसिंहे प्रमदासा की की हत्या को षायद श्रीलंकावासी कभी भूल न पाएं। एक मई, 1993 को कोलंबों में मानव बम के जरिए प्रभारकन के आतंकवादियों ने प्रेमदासा की निर्मम हत्या कर दी थी।
इसके अलावा लिटटे ने हजारों लोगों को आतंकवादी वारदातों के जरिए मौत के घाट उतार दिया। तमिल संघर्ष के नाम हजारों मासूम बच्चों के हाथों में हथियार थमाने का गुनाहगार भी प्रभाकरन ही है। दुनिया के सभी संगठन और देष भी बार-बार यह कहते रहे कि तमिल विद्रोहियों ने नाबालिगों को बंदूक थमा दिया लेकिन पहले सवाल यह था कि लिटटे पर किसी की नकेल नहीं थी और वह मजबूत भी था। आज हालात बदलें हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं कि बडी संख्या में बच्चे हथियार छोडकर समाज की मुख्यधारा में जुडेंगे।


प्रभारकन की गुनाह की पोटली हाल के दिनों में और भी भारी हो गई है। किलिनोच्चि में जब उसे पराजय मिलने लगी तो वह अपने आखिरी गढ मुल्लैतिवु की ओर भागने लगा। लेकिन अपने साथ अपनी आतंकी लष्कर के साथ मासूम नगरिकों को भी लेता चला गया। इसका मतलब यह नहीं था कि वह तमिल नागरिकों से हमदर्दी रखता है। इसका सीधा मतलब यह है कि वह नागरिकों को अपनी ढाल पहले भी बनाता था और आज भी बना रहा है।


अंतर्राष्टीय रेडक्रास समिति ने हाल ही में कहा कि मुल्लैतिवु के जंगलों सैकडो तमिल नागरिक मारे गए हैं और हजारों की संख्या में फंसे हुए हैं। मुल्लैतिवु में नागरिकों के मारे जाने या फंसे होने की वजह भी प्रभारकन और उसके साथी हैं। प्रभारकन और उसके साथी नागरिकों को अपने साथ जंगलों में लेकर इसलिए गए कि श्रीलंकाई सेना का बढता कदम रंक जाएगा। हांलाकि ऐसा नहीं हुआ। कारण भी यही था कि सेना की कार्रवाई में नागरिका भी मारे गए। इसके लिए सेना की भी आलोचना हो रही है।
अब सवाल यह है कि हजारों की हत्या का जिम्मेदार प्रभारकन श्रीलंका में ही है या कहीं भाग गया है। लिटेटे की ओर से पिछले दिनों एक बयान जारी कर कहा गया था कि प्रभारकन श्रीलंका में है। मीडिया की अन्य खबरों में कहा गया है कि प्रभारकन अपने परिवार के साथ समुद्री रास्ते के जरिए इंडोनेषिया भागने की फिराक में है।


श्रीलंकाई सरकार का अपनी सेना का यही आदेष है कि प्रभारकन को जिंदा या मुर्दा पकडा जाए। सेना का कहना है कि प्रभारकन के भागने के सभी रास्ते बंद कर दिए गए हैं। प्रभारकन को जानने वाले कहते हैं कि प्रभारकन इतनी आसानी से हार नहीं मानने वाला है। उसके संगठन की ओर से भी कहा गया था कि प्रभाकरन का हुक्म हैं कि सेना के गिरपफत में जाने की बजाय उसके साथी उसे गोली मार देंगे।


गौरतलब है कि दुनिया इसी ओर देख रही ंहै प्रभाकरन का आतंकी साम्राज्य अब खत्म होगा और श्रीलंका के तमिलों समेत सभी नागरिक चैन से जी सकेंगे। अगर वाकई ऐसा होता है तो श्रींलका के इतिहास में यह मील का पत्थर साबित होगा। यह बात भारत के सामरिक हित में भी होगी।

Friday, February 27, 2009

मुसलमान मुख्यधारा से अलग क्यों?


अनवारूल हक


देश का आम मुसलमान पेसोपेश में है। आज से नहीं बल्कि पिछले साठ वर्षों से है। कभी उसके समर्पण का इम्तहान होता है तो कभी उसको शक के दायरे में खड़ा कर दिया जाता है। कई मौके तो ऐसे भी आते हैं जब सिर्फ और सिर्फ एक मुसलमान को ही अपने भारतीय होने की या पिफर कहें कि भारतीयता की कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती मिलती है। इसमें वह मासूम और अपनी ही दुनिया में मशगूल मुसलमान भले ही बेकसूर हो, पर उसको कसूरवार बनाने का जुर्म हो रहा है और ऐसे जुर्म को अंजाम देने वाले भी गैर नहीं, बल्कि उन्हीं में से चंद हैं।


कोई मजहब के नाम पर, कोई जिहाद के नाम पर तो कोई किसी बाहरी ताकत की पफरमानी के नाम पर या तो खुद गुमराह हो जाता है या फिर चंद लोगों को उस रास्ते पर धकेल देता है जो केवल वतनखिलापफी की ओर जाता है। नतीजा कोई और भुगतता है। कभी-कभार तो पूरी कौम जवाबदेह हो जाती है। ऐसे मौके पर मुस्लिम लीडरशिप का असल इम्तहान होता है, लेकिन अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि एक मुसलमान को तो अब तक अपने रहनुमाओं से नाउम्मीदी ही हाथ लगी है।मसला आतंकवाद का हो, कश्मीर का हो, देश के किसी संवेदनशील मुद्दे का हो या पिफर ऐटमी डील का हो, हर जगह मुसलमानों को अलग-थलग करने की शातिराना कोशिश होती है और नतीजतन पूरी कौम पर एक इल्जाम, वह भी देश की मुख्यधरा से अलग होने का, स्वतः ही लग जाता है।


देश के ज्यादातर मसलों पर मुसलमानों को अलग रखकर दृष्टिकोण बनाने का सिलसिला नया तो नहीं है। परंतु एक बात जरूर है कि उनको हमेशा ही देश के दूसरे समुदायों से अलग रखकर तौलने का क्रम मौजूदा दौर ज्यादा बढ़ा है।सवाल कई हैं। सबसे अहम सवाल यही है कि आखिर मुसलमान मुख्यधारा से अलग क्यों है? इसका जवाब तलाशने की कोशश तो की ही जा सकती है। महत्वपूर्ण बात यह भी है आज जब हर जगह वैश्वीकरण और आध्ुनिकता की बयार चल रही तो ऐसे में मुसलमानों के लिए कोई दूसरा मानदंड तो नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए। जिस सवाल को यहां खड़ा किया गया है, वह मजहबी तो हरगि”ा नहीं है, सियासी जरूर है। सियासी इसलिए भी है कि मुसलमान भी देश की हर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बराबर का भागीदार और वाजिब हकदार है।वास्तविक के धरातल पर तस्वीर दूसरी है। कई बार ऐसा होता है जब देश के मुसलमानों को बाकी देश के साथ नजर आना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मुसलमानों को अलग-थलग रखने की साजिश होती है और ऐसा नजर आने लगता है कि वे देश की अवाम से अलग है।

Thursday, February 26, 2009

मुख्यधारा से अलग नहीं है देश का मुसलमान: मदनी


देश ही नहीं, पूरी दुनिया में मुसलमानों को शक की नजर से देखा जाता है। भारत में आजादी के साठ साल बाद भी मुसलमानों को मुख्यधरा से अलग करके देखा जाता है. इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे रहनुमा हैं जो उनकी लीडरशिप का दावा पिछले साठ वर्षों से कर रहे हैं। इसी मुद्दे पर जमियत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव और राज्यसभा सांसद मौलाना महमूद मदनी से कुछ माह पहले हुई बातचीत के प्रमुख अंश -



क्या आप मानते हैं कि देश का मुसलमान मुख्यधारा से अलग है?


देखिए, ऐसी सोच फैला दी गई है कि मुसलमान मुख्यधारा से अलग है। अगर ऐसा है भी तो इसके लिए मुसलमान दोषी नहीं हैं बल्कि वे लोग दोषी हैं जो मुसलमानों की तरक्की को पसंद नहीं करते। उन्होंने इस तरह के विचार को बढ़ाने का काम किया। आज इसका नतीजा सबके सामने है।



मुसलमानों के पीछे होने की वजह क्या है?
इसका जवाब बहुत बड़ा है। देश की आजादी के समय कुछ लोग खड़े हुए जिन्होंने मजहब के नाम पर देश के विभाजन की मांग की। जिन लोगों ने देश का विभाजन करवाया था, चाहे वे भारत के रहनुमा हों या पिफर मुस्लिम लीग के लोग हों, उनका तो कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन इस पूरे एपीसोड का जिम्मेदार मुसलमानों को करार दिया गया या कहें कि उनके ऊपर यह आरोप मढ़ दिया गया। मुसलमानों को मुख्यधरा से अलग रखने का सिलसिला भी उसी वक्त शुरू हुआ था और यह सियासी मकसद के लिए किया गया था।


इसका मतलब कि मुसलमानों का इस्तेमाल किया गया है।
जी , बिल्कुल। देखिए मुसलमानों को शिक्षा से दूर रखा गया। उनको बुनियादी सुविधओं से भी दूर रखा गया। इसी का नतीजा रहा कि मुसलमान पिछड़ता चला गया। इसका मतलब यह कि मुसलमानों को अब तक सिपर्फ इस्तेमाल ही किया गया है।



इसका कसूरवार किसे कहेंगे?
इसके लिए कसूरवार वही लोग हैं जिनकी देश में हुकूमतें रही हैं। उन्होंने ही मुसलमानों को इस हाल में पहुंचाया है। ऐसी सूरत पैदा कर दी कि हिंदुओं के जो मसले हैं उससे मुसलमान को कोई मतलब न हो और मुसलमानों के जो मसले थे उससे हिंदू बेखबर हो जाए। दोनों को अलग कर दिया गया और आज हालत सबके सामने है।

बांग्लादेश में प्रायोजित बगावत ?


चंद दिनों से बांग्लादेश में जो कुछ भी हो रहा है उसे अलग ढंग से देखने की सख्त जरूरत है। हमारे इस में पडोसी मुल्क में जिस तथाकथित बगावत की बात की जा रही है वह कोई आकस्मिक नहीं है। इसमें एक तरह प्रयोजन की बू नजर आती है.


के अर्द्धसैनिक बालों ने जो विद्रोह बिगुल फूका था उसमे कहीं न कहीं बहरत के खिलाफ ल्क्जिश की गूँज थी. यह बात अलग है कि इस तथाकथित बगावत कि भेंटी बांग्लादेश के कुछ निर्दोष सैनिक चढ़ गए. कहने का मतलब नहीं कि बांग्लादेश कि सरकार या वहां कि मशीनरी भारत के खिलाफ कोई साजिश रच रही है. यह साजिश भारत के एक दुसरे हिस्से से भी रची जा सकती है और इस बात कि प्रबल सम्भावना भी है कि ऐसा ही हुआ हो.


किसी देश का नाम लेने की जर्रूरत नहीं है. हम सभी जानते हैं कि हमारे एक पडोसी मुल्क कि खुफिया एजेन्सी बांग्लादेश में अपनी पथ बनाए कि हमेशा कोसिस में रही हैं. और उसके कोसिस के पीछे भी एक वजह है भारत को अपने निशाने पर लेना. बांग्लादेश की तथाकथित बगावत को भी इसी नजरिये से देखना होगा.

Wednesday, February 25, 2009

मुंबई हमले का असर


देश की तस्वीर कुछ हद बदली है। खासकर मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि आम लोगों के नजरिये में एक विशेष बदलाव आया है. यह बदलाव सकारात्मक भी है और सराहनीय भी. यू कहें की अब इस हमले की वजह के बाद देश की आवाम और हूकुमत दोनों में आतंकवाद के खिलाफ एक अलग तरह की इच्छाशक्ति पैदा हुई तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

भारत न सिर्फ आतंरिक मोर्चे पर बल्कि कुटनीतिक मोर्चे पर भी गजब की तत्परता दिखाई है जिसके लिए वाकई सरकार की सराहना की जानी चाहिए. चाहे वो विश्व स्तर पर पाकिस्तान की घेराबंदी हो या फिर देश की हिफाजत के लए उठाये गए कुछ जरूरी कदम हों. इन सबमें सरकार ने परिपक्वता का परिचय दिया है. हाल ही देश के डिफेन्स बजट में बड़े पैमाने पर इजाफा करना भी इसी परिपक्वता का ही परिचय है.

Saturday, February 21, 2009

दिल्ली-६

वाकई दिल्ली -६ बात ही कुछ अलग है। जब आप दिल्ली-६ यानी चाँदनी चौक गलियों में जायेंगे तो आपका मन एक बार के लिए जरोर मचल उठेगा। मैं भी पहली बार जब दिल्ली-६ का रूख किया तो मुझे भी बेहद सुखद अनुभव हुआ।

क्या कहूं