Wednesday, March 18, 2009

वरुण गांधी का 'विषैलापन'


वरूण गांधी से जुड़े सीडी प्रकरण पर गौर करें तो इस पर किसी को भी ताज्जुब नहीं करना चहिए। हां थोड़ा आश्चर्य इस बात है कि गांधी-नेहरु परिवार से जुड़ा व्यक्ति इस जुबान में बोल रहा है। वैसे भी वरुण आज जिस सियासी पार्टी में हैं उसका इस तरह की भाषा से पुराना नाता रहा है।
बात अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की नहीं हो रही है। यहां बात उनकी पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी की हो रही है। कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा के महारथी रहे कल्याण सिंह की भाषा भी वरुण वाली भाषा थी। नरेंद्र मोदी की भाषा का गवाह भी पूरा देश है।
वैसे यह सवाल बड़ा है कि वरुण को अचानक इतने कट्टर हिंदुत्व की याद कैसे आ गई। इसके पीछे वजहें दो हैं। पहली यह कि वरुण को अपना सियासी ग्राफ बढ़ाना है और दूसरी बात यह कि इसी तरह के हथखंडो से उनकी पार्टी भी फायदा उठाना चाहती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या वरुण को अपने मकसद में कामयाबी मिल पाएगी।
कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी यह तल्ख भाषा वाली मेहनत जाया चली जाए। संभावना यह भी है कि उनकी इस जुबान के असल सूत्रधार कहीं उन्हें बीच भंवर न छोड़ दें। ये बातें तो खुद वरुण को ही सोंचनी पड़ेंगी।

Saturday, March 14, 2009

अनुराग कश्यप का जवाब नहीं

निर्देशक अनुराग कश्यप न सिर्फ हटकर फिल्में बनाते हैं बल्कि अपनी फिल्मों में समाज की कड़वी को भी समेटते हैं। इस बात को उन्होंने अपनी नई फिल्म गुलाल से एक बार फिर साबित कर दिया है।

उनकी नई फिल्म गुलाल छात्र राजनीति की कड़वी सच्चाइयों से बखूबी वाकिफ कराती है। इस फिल्म में अनुराग ने अपने बेहतरीन निर्देशन की झलक एक बार फिर पेश की है। राजस्थान के राजपूत समाज और छात्र राजनीति की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दिलीप सिंह नाम के एक ऐसे युवक की कहानी है जो सियासत और समाज की कड़वी सच्चाइयों से अनजान होता। वह किस तरह से एक भोलीभाली जिंदगी से सियासत के दांवपेंच में फंसता है फिर उससे कैसे निकलता है, इसी को फिल्म में बड़े ही वास्तविक ढंग से दिखाने की कोशिश हुई है।
अनुराग की इस फिल्म के हर किरदार में वास्तविकता की एक झलक मिलती है। सभी ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय करने की कोशिश की है। परंतु अभिनय के लिहाज से यह फिल्म संजीदा कलाकार के के मेनन के कंधों पर टिकी है। फिल्म में बाना नाम का जो किरदार उन्होंने निभाया वह अपने आप में लाजवाब है।

Sunday, March 8, 2009

बापू के देश में माल्या

शराब के कारोबारी विजय माल्या का भला गांधी और गांधीवाद से क्या सरोकार है। यह बात इसलिए उठती है क्योंकि बहुत लोगों को महात्मा गांधी से जुडी धरोहरों को बोली लगाकर खरीदना अच्छा नहीं लगा। इनका तर्क है कि जिस गांधी ने आजीवन शराब के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की आज उन्हीं बापू की धरोहर को शराब के एक कारोबारी ने खरीदा।
आज अगर हमने बापू के कुछ सामानों को अपने देश की अस्मिता औ प्रतिष्ठा से जोड दिया था तो माल्या ने उन सामानों को खरीदकर निश्चित तौर पर उस अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा की है।
जहां तक बात गांधी और माल्या के सरोकार की है तो वह एक लंबी बहस का मसला है। बात सच है कि माल्या का गांधीवाद से कोई लेना देना नहीं है लेकिन वे लोग जो गांधी और उनके वसूलों के असल अनुयायी बन रहे हैं क्या वे लोग खुद से यही सवाल करके देख सकते है। सवाल वहीं कि वे किस हद तक वे गांधीवाद से जुडे हैं।
कहने का मतलब साफ है कि गांधी की सिर्फ मौकों पर करने वाले और अपने चंद फायदों के लिए बापू के नाम का बेजा इस्तेमाल करने वालों को कोई हक नहीं है कि माल्या पर बरसें क्योंकि माल्या भी बापू के इसी देश के बाशिंदे हैं।

Tuesday, March 3, 2009

'ना पाक' ना


श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर लाहौर हुए हमले ने पाकिस्तान के चेहरे से मासूमियत का नकाब फिर से उतार दिया है. पाकिस्तानी पंजाब सरकार को तो मुंबई पर हमला करने वाले दरिंदो की याद आ गयी. शायद पहले नहीं आयी थी क्यूंकि पहले निशाना लाहौर नहीं था.
कहने का मतलब यह है की पाकिस्तान कब तक पूरी दुनिया की आँखों में धुल झोंकता रहेगा. यह बात सही है किसी श्रीलंका के किसी खिलाडी की जान नहीं गयी. लेकिन जिस तरह से एक मेहमान टीम को बीच सड़क पर रोक कर गोलियां बरसाईं गयीं, वह वाकई खौफनाक था.
अब भी वक्त है की पाकिस्तान की सरकार कुछ ठोस करे नहीं तो इतनी देर हो जायेगी की पाकिस्तान के लिए अपना अस्तित्व बचाना भी मुस्किल हो जायेगा. उसे यह भी सोचना चाहिए अमेरका और चीन कब तक उसके आका बने रहेंगे.


तस्वीर: सौजन्य- बीबीसी

Monday, March 2, 2009

फिजा और चांद के आइने में इस्लाम


हाल में हुए फिजा और चांद मोहम्मद प्रकरण के बाद एक सवाल मन में कौंध रहा है कि इस्लाम को लेकर इस तरह का रवैया क्यों पेश किया जा रहा है। क्यों हरियाणा की सियासत के एक जाना पहचाना नाम अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्लाम का सहारा लेता है। इस पूरे प्रकरण के आइने में एक सवाल और खडा होता है कि किसी मजहब को महज अपने निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कहां तक तक इजाजत मिलनी चाहिए।
चांद मोहम्मद यानी चंद्रमोहन चंद महीने पहले तक एक बेहद रसूखदार पद पर आसीन थे। हरियाणा के उप मुख्यमंत्री के कुर्सी पर आसीन चंद्रमोहन अचानक चांद मोहम्मद बनकर सबके सामने आए और साथ में थीं उनकी नई नवेली पत्नी अनुराधा बाली उर्फ फिजा।
इस पूरे मामले में इस्लाम कहीं न कहीं केंद्र बिंदु में था। यही वजह रही कि मुस्लिम समाज से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया। एक इस्लामिक संस्था ने तो चांद मोहम्मद के खिलाफ फतवा तक जारी कर दिया।
वैसे दुनिया के किसी भी मजहब या विचारधारा की तरह इस्लाम में इस बात की पूरी आजादी है कि कोई भी इंसान इसमें अपनी आस्था जताने के लिए आजाद है। अगर कोई भी व्यक्ति इस्लाम को स्वीकार करना चाहता है तो उसे इस बात की पूरी छूट न सिर्फ इस्लामी कानून देते हैं बल्कि हमारे मुल्क का संविधान भी इसकी पूरी-पूरी आजादी देता है। यही वजह है कि चंाद मोहम्मद और फिजा ने बिना किसी रोक-टोक के अपने निजी मकसद के लिए इस्लाम का सहारा लिया।
इस बात को समझना जरुरी है कि आखिर चांद और फिजा ने इतनी आसानी से इस्लाम की कोई जानकारी न होने के बावजूद इसे क्यों अपनाया। दरअसल, फिजा और चांद को इस्लाम में आस्था नहीं थीं बल्कि अपने मकसद में आस्था थी। यह मकसद था शादी करने का और कानून के दायरे साफ तौर पर बाहर निकलने का।
अब तो यह देखना है कि फिजा या चांद कब तक इस्लाम को अपनाए रहते हैं। दोनों के अब तक के रवैये से साफ है कि उनका सिर्फ एक मकसद था जो पूरा हुआ लेकिन उनके सारे वादे और इरादे ने एक दूजे के लिए बल्कि इस्लाम और समाज के नजरिए से भी बेमानी साबित हुए है। उनकी साथ जीने मरने की कसमें चंद दिनों में ही टूट गईं और हर नेकी भरी बातें भी उनके जेहन से दूर हो गईं।
बात सिर्फ चांद और फिजा की नहीं है बल्कि ऐसे कई और लोग भी हैं जो अपने आप को महफूज करने की मकसद से इस्लाम का सहारा लेते हैं। फिल्म अभिनेता धर्मेंद और अभिनेत्री हेमा मालिनी की शादी के फसाने भी कुछ इसी तरह के थे। धर्मेंद्र ने हेमा से शादी करने का इरादा किया तो उनके सामने मजहबी बंधन और कानूनी अडचन आगे आ गई। इससे पीछे छुडाने के लिए इन दोनों ने इस्लाम का सहारा लिया।
सवाल यह है कि क्या इस्लाम को अपनाने वाले की नीयत को नहीं भांपा जाना चाहिए। इस बात पर मुस्लिम जगत के उलेमा इत्तेफाक नहीं रखते। फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफती मोहम्मद मुकर्रम अहमद कहते हैं कि यह लोकतंत्र है और यहां किसी को कोई मजहब अपनाने से नहीं रोका जा सकता। वे कहते हैं कि इस्लाम अगर कोई भी इंसान कुबूल करना चाहता है तो उसे राकने की इजाजत मजहब नहीं देता और किसी की नीयत मापने का पैमाना क्या हो सकता है।
उधर, महिलाओं के अधिकार की लडने वाली आॅल इंडिया महिला मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं कि फिजा और चांद मोहम्मद जैसे लोगों ने इस्लाम को बदनाम करने का काम किया है। उनका कहना है कि चंद्रमोहन यानी चंाद ने न सिर्फ इस्लाम को बदनाम किया बल्कि एक औरत के साथ धोखा कर औरतों की भी बदनाम किया। वह इस पूरे प्रकरण में उलेेमाओं और मुस्लिम रहनुमाओं की खामोशी को भी उचित नहीं मानती।
अब इस्लाम के जानकार और उलेमा कुछ भी कहें लेकिन चांद और फिजा ने जिस मजाकिया अंदाज में इस्लाम की आड में शब्दजाल बुने और देश की मीडिया खासकर टेलीविजन मीेडया ने इस पूरे प्रकरण को दिखाया उसमें कहीं न कहीं इस्लाम और उसके मानने वालों को ठेंस जरूर पहुंची।

Sunday, March 1, 2009

जामिया नगर में भी 'जय हो'


गुलजार साहब और रहमान की 'जय हो' का लोहा सात समुंदर पार वे लोग भी मान गए जो 'जय हो'या यू कहें कि हमारी हिंदी से वाकिफ नहीं हैं। मैं तो कहूंगा कि 'जय हो' देश में मजहबी बाधाओं को भी खंडित कर दिया है। इस बात का मैं गवाह अचानक ही बन गया।


दअसल मैं राजधानी के उस इलाके में रहता हूं जहां शायद ही कोई गैर मुस्लिम बाशिंदा बसर करता हो। बात जामिया नगर की कर रहा हूं। चंद रोज पहले की बात है जब मैं जामिया नगर इलाके के बटला हाउस बाजार में चहलकदमी कर रहा था। उसी दौरान मेरे कानों में 'जय हो' की गूंज सुनाई दी। जो आवाज मुझे सुनाई दे रही थी वह किसी रेडियो, टीवी या म्यूजिक सिस्टम से नहीं आ रही थी बल्कि दो मासूम बच्चे इस गीत को बेहद शिद्दत से गा रहे थे। उसी दिन इसी इलाके के जाकिर नगर में मुझे 'जय हो' गुनगुनाते हुए कुछ बच्चे और दिखे।


इस बात का बखान मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैं जिस तबके यानी मजहब से ताल्लुक रखता हूं वहां चंद परिवार ही ऐसे होंगे जहां 'जय हो'का गान बेहद ही 'उदारवादी माहौल' में मुमकिन है। पर गुलजार साहब और संगीत के जादूगर रहमान ने इसे हर जगह मुमकिन कर दिखाया है। यह कहना ठीक होगा कि संगीत को भौगोलिक सीमाए ही नहीं वरन मजहबी सीमाएं भी नहीं रोक सकती हैं।