Sunday, March 1, 2009

जामिया नगर में भी 'जय हो'


गुलजार साहब और रहमान की 'जय हो' का लोहा सात समुंदर पार वे लोग भी मान गए जो 'जय हो'या यू कहें कि हमारी हिंदी से वाकिफ नहीं हैं। मैं तो कहूंगा कि 'जय हो' देश में मजहबी बाधाओं को भी खंडित कर दिया है। इस बात का मैं गवाह अचानक ही बन गया।


दअसल मैं राजधानी के उस इलाके में रहता हूं जहां शायद ही कोई गैर मुस्लिम बाशिंदा बसर करता हो। बात जामिया नगर की कर रहा हूं। चंद रोज पहले की बात है जब मैं जामिया नगर इलाके के बटला हाउस बाजार में चहलकदमी कर रहा था। उसी दौरान मेरे कानों में 'जय हो' की गूंज सुनाई दी। जो आवाज मुझे सुनाई दे रही थी वह किसी रेडियो, टीवी या म्यूजिक सिस्टम से नहीं आ रही थी बल्कि दो मासूम बच्चे इस गीत को बेहद शिद्दत से गा रहे थे। उसी दिन इसी इलाके के जाकिर नगर में मुझे 'जय हो' गुनगुनाते हुए कुछ बच्चे और दिखे।


इस बात का बखान मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैं जिस तबके यानी मजहब से ताल्लुक रखता हूं वहां चंद परिवार ही ऐसे होंगे जहां 'जय हो'का गान बेहद ही 'उदारवादी माहौल' में मुमकिन है। पर गुलजार साहब और संगीत के जादूगर रहमान ने इसे हर जगह मुमकिन कर दिखाया है। यह कहना ठीक होगा कि संगीत को भौगोलिक सीमाए ही नहीं वरन मजहबी सीमाएं भी नहीं रोक सकती हैं।